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देश में 60 % परिवार को नहीं मिल रहा है खाने के लिए ‘हेल्दी फूड’! सर्वेक्षण में हुआ खुलासा

कोरोना महामारी की वजह पूरी दुनिया में करोड़ों लोगों की आय पर बुरा प्रभाव पड़ा है. भारत जैसे देश में लाखों की नौकरी चली गई. खासकर कमजोर वर्गों पर इसका सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है. कुछ खबरों पर यकीन करें तो कई लोग भूखमरी के शिकार भी हुए. इसी संदर्भ में एक एनजीओ राइट टू फूड कैंपेन ने अपने ‘हंगर वाच सर्वे-2’ के तहत देश में एक सर्वेक्षण किया. सर्वे में दिसंबर 2021 और जनवरी 2022 के दौरान खाद्य असुरक्षा की स्थिति बेहद गंभीर नजर आई. पौष्टिक आहार में कमी देखी गई.

ऐसे प्रश्न पूछे गए थे
सर्वे के दौरान 60 फीसदी परिवार ने कहा कि वे अपने भोजन के बारे में चिंतित हैं या उन्हें हेल्दी खाना नहीं मिल पा रहा है. इतना ही नहीं सर्वेक्षण से पहले वे जितना खाना खाते थे, अब वे उतना नहीं खा पा रहे हैं. इस सर्वेक्षण में लोगों से ऐसे प्रश्न पूछे गए थे-

क्या उन्हें पर्याप्त भोजन मिल रहा ?
पौष्टिक खाना मिल रहा है या नहीं ?
क्या किसी दिन खाना नहीं मिला ?
जितना खाना चाहिए था, उतना मिला या नहीं ?
खाने में क्या मिला ?

कोरोना महामारी में बदल गई स्थिति
इस सर्वेक्षण में 6,697 लोगों में से केवल 34 फीसदी लोगों ने बताया कि पहले उनके घरों में अनाज की खबत पर्याप्त थी. मगर बाद में स्थिति बदल गई. 50 फीसदी लोगों ने कहा कि महामारी की वजह से महीने में 2-3 बार अंडा, दूध,मांस और फल खाया. सर्वेक्षण का निष्कर्ष सरकार के उस दावे से विपरित है, जहां दावा किया गया कि महामारी के बीच एक मजबूत खाद्य सहायता कार्यक्रम चला रही है.

पहले सर्वेक्षण में ये बात आई थी सामने
टेलिग्राफ इंडिया के मुताबिक, इस एनजीओ ने अपना पहला सर्वेक्षण अक्टूबर-दिसंबर 2020 के दौरान पहले कोरोना लहर के बाद किया था, जिसमें पाया गया था कि 71 फीसदी लोगों को महीने में एक पौष्टिक भोजन नहीं मिला था. इस सर्वेक्षण में सेंटर फॉर इक्वटी स्टडीज ने भी हिस्सा लिया था.

कैसे हुआ दूसरा सर्वेक्षण?
दूसरे सर्वेक्षण में देश के 14 राज्यों के कुल 6,697 लोगों ने भाग लिया, जिसमें सबसे अधिक 1,192 लोग बंगाल से थे. इनमें 31 फीसदी अनसूचित जनजाति, 25 फीसदी अनुसूचित जाति, 19 फीसदी सामान्य जाति, 15 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग और 6 फीसदी विशेष रुप से कमजोर जनजातीय समूह के लोग शामिल थे. सर्वेक्षण में महिलाओं की हिस्सेदारी 71 प्रतिशत थी. सर्वेक्षण में ग्रामीण क्षेत्र और शहर की मलिन बस्तियों के लोगों को शामिल किया गया था.

सरकार ने नवंबर 2021 तक दूसरी लहर के दौरान राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लाभार्थियों के लिए प्रति व्यक्ति प्रति माह अतिरिक्त 5 किलो मुफ्त राशन प्रदान किया. यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत उन्हें प्रदान किए जाने वाले नियमित सब्सिडी वाले भोजन के अतिरिक्त था.

हंगर वॉच सर्वे-2 में पाया गया कि 84 प्रतिशत परिवारों के पास राशन कार्ड था और 90 प्रतिशत से अधिक लाभार्थियों को खाद्यान्न प्राप्त हुआ था. लेकिन कई को प्री-प्राइमरी बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन और पोषण संबंधी सहायता नहीं मिली.

अर्थशास्त्री क्या सोचते हैं ?
पटना स्थित ए.एन सिन्हा इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक अर्थशास्त्री सुनील रे के अनुसार, इसके लिए नौकरियों और आय में गिरावट को जिम्मेदार ठहराया. उनका कहना है, ‘अगर लोगों के पास आय और पैसा है, तो वे भोजन और अन्य उपभोग पर खर्च करेंगे. उन्हें औपचारिक या अनौपचारिक नौकरियों या स्वरोजगार से स्थिर आय की आवश्यकता होती है. रोजगार और आय के इस मोर्चे पर पिछली सरकार के दौरान स्थिति खराब थी और मौजूदा सरकार में और खराब हो गई है.’ रे के अनुसार, बड़े कारपोरेटों को बढ़ावा देने की आर्थिक नीति का आम लोगों के लिए नौकरियों के मामले में ट्रिकल-डाउन प्रभाव नहीं पड़ रहा था.

IIT दिल्ली में अर्थशास्त्र की फैकल्टी रीतिका खेरा का कहना है, ‘ऐसा नहीं है कि सरकार ने कुछ नहीं किया है. उदाहरण के लिए, उसने राशन कार्ड रखने वालों के लिए पीडीएस गेहूं और चावल को दोगुना कर दिया. लेकिन जो आवश्यक था उसकी तुलना में, सरकार के प्रयास कम हो गए हैं. जिन दो प्रमुख और जरूरी कार्यों की आवश्यकता थी, उन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. पहला, पीडीएस के दायरे का विस्तार करके उन लोगों को शामिल करना जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं. दूसरा, पीडीएस में दाल और तेल जैसी चीजें शामिल करना फिर, इनमें से किसी पर भी काम नहीं हुआ’.

रीतिका खेरा का यह भी कहना है, ‘सरकार को फंसे हुए प्रवासी कामगारों के लिए सामुदायिक रसोई खोलनी चाहिए थी.एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम के तहत, जो पूर्व-प्राथमिक बच्चों के पोषण की बात करता है. इसके लिए 2014-15 में बजटीय आवंटन 18,691 करोड़ रुपये था, जो मौजूदा कीमतों पर 27,615 करोड़ रुपये है. 2022-23 में योजना के लिए बजटीय आवंटन 20,263 करोड़ रुपये है.’ (hindi.news18)

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