साइकिल की कहां निकली हवा? अखिलेश यादव के ‘रेनबो कॉलिशन’ की क्यों हुई हार? जानें- 5 बड़े कारण
नई दिल्ली, 10 मार्च । उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों के ताजा परिणाम और रुझानों से साफ हो गया है कि राज्य में फिर से बीजेपी (BJP) की सरकार बनने जा रही है. ताजा रुझानों (12.10 बजे तक) के मुताबिक, 403 सदस्यों वाली यूपी विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले गठबंधन को कुल 266 सीटें मिलती दिख रही हैं, जबकि विपक्षी समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन को 125 सीटों से संतोष करना पड़ रहा है. हालांकि, 2017 के मुकाबले यह 73 सीट ज्यादा है.
2024 का सेमीफाइनल कहा जा रहा यह असेंबली चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था क्योंकि सबसे बड़े राज्य से बीजेपी की विदाई के कई सियासी मायने हो सकते थे. फिलहाल उन मायनों और अटकलों पर चुनावी परिणामों और रुझानों ने न केवल ब्रेक लगा दिया है, बल्कि यह भी साबित कर दिया है कि अभी भी देश में ‘ब्रांड मोदी’ का ही जादू चल रहा है.
आइए जानते हैं कि ऐसे कौन से कारण रहे, जिनकी वजह से बीजेपी ने तमाम पिछड़ी जातियों के गठजोड़ और मुस्लिमों के समर्थन वाले गठबंधन को करारी शिकस्त दी.
इंद्रधनुषीय गठजोड़ पर हावी हार्डकोर हिन्दुत्व:
इस चुनाव को मंडल बनाम कमंडल का भी चुनाव कहा गया क्योंकि जहां बीजेपी ने हिन्दुत्व कार्ड खेलते हुए अयोध्या, काशी और मथुरा में मंदिर की बात की तो वहीं MY समीकरण वाली समाजवादी पार्टी ने ओबीसी समुदाय की करीब सभी जातियों का एक विशाल इंद्रधनुषीय गठबंधन बनाया.
अखिलेश ने न केवल राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी से गठजोड़ किया बल्कि गैर यादव ओबीसी नेताओं सभासपा के ओम प्रकाश राजभर, जनवादी पार्टी के संजय सिंह चौहान, महान दल के केशवदेव मौर्य, अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल, कांग्रेस से सपा में शामिल हुए पाल समाज के नेता राजाराम पाल, जाट नेता हरेंद्र मलिक और पंकज मलिक, सुखदेव राजभर के बेटे रामअचल राजभर, लालजी वर्मा समेत कई पिछड़े और किसान नेताओं का विशाल गठबंधन बनाया. अखिलेश यादव ने बीजेपी के रथ पर सवार स्वामी प्रसाद मौर्य समेत कई पिछड़े नेताओं को भी अपने पाले में किया, बावजूद इसके साइकिल दौड़ नहीं पाई.
बीजेपी ने भी जातीय गोलबंदी की और कई पिछड़ी जातियों को 2017 की तरह अपने पाले में रखने की कोशिश की. इसके साथ ही बीजेपी ने विराट हिन्दुत्व का नैरेटिव गढ़ा और उस दिशा में जिन्ना विवाद से लेकर हिजाब विवाद तक का कार्ड खेला ताकि एंटी मुस्लिम हवा बनाई जा सके और उसे बहुसंख्यक हिन्दू वोट मिल सके. बीजेपी को मिले वोट परसेंटेज बीजेपी के चुनावी दांव की सफलता की कहानी बता रहे हैं.
पीएम मोदी का जादू:
पांच राज्यों का चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता मापने का भी चुनाव था. यूपी समेत अन्य राज्यों के चुनावी नतीजों ने बता दिया कि देश में अभी भी प्रधानमंत्री मोदी का जादू चल रहा है. मौजूदा परिस्थितियों में उनकी टक्कर में किसी भी दल में कोई नेता सर्वस्वीकार्य नहीं है. यूपी समेत पांचों राज्यों में पीएम मोदी ने खूब रैलियां की. उत्तर प्रदेश में तो उन्होंने लगभग हर चरण में और हर इलाके में चुनावी रैलियां कीं और समाजवादी पार्टी पर खुलकर हमले बोले. अंतिम चरण में तो उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में तीन दिनों तक डेरा ही डाल दिया.
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पूर्वांचल को अहम मानते हुए पीएम ने पिछले डेढ़ महीने में वहां छह दौरे किए. इसके अलावा पीएम मोदी ने आक्रामक चुनावी रणनीति और जनता को सपा सरकार के दिनों की याद दिलाकर और माफियाराज का पर्याय बताकर वोटरों को लामबंद करने की जो कोशिश की, उसका असर शहर से लेकर गांव-गांव तक देखने को मिला. पीएम अपने कार्यक्रमों में बनारस में कभी सफाईकर्मियों के साथ भोजन करते नजर आए तो कभी रात में सड़कों, रेलवे स्टेशनों और गलियों में चहलकदमी करते नजर आए. इससे उन्होंने जनता के बीच जनकल्याणकारी प्रधानमंत्री का एक खास नरेटिव गढ़ा, जो वोट दिलाने में कारगर साबित हुआ.
बीजेपी का विकासवादी और कल्याणकारी एजेंडा:
बीजेपी ने पूरे चुनाव में हिन्दुत्व और विकास दोनों एजेंडों को साथ-साथ रखा. जहां काशी में विश्वनाथ कॉरिडोर का उद्घाटन किया गया तो वहीं जेवर समेत यूपी में पांच इंटरनेशनल एयरपोर्ट का शिलान्यास-उद्घाटन भी किया गया. इसके अलावा गंगा एक्सप्रेस-वे, बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे, पूर्वांचल एक्सप्रेस वे, डिफेंस कॉरिडोर, सरयू नहर परियोजना की सौगात भी यूपी को दी गई. इन परियोजनाओं से बीजेपी ने अपने विकासवादी छवि को न सिर्फ पुख्ता किया बल्कि विपक्ष के आरोपों की धार को कुंद करने के साथ-साथ एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर को भी कमतर करने की कोशिश की. इसका जनमानस पर व्यापक असर पड़ा, और वह मतों के रूप में परिणत हुआ.
ओवैसी फैक्टर:
बिहार विधान सभा चुनावों की तरह ही उत्तर प्रदेश चुनावों में भी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने महागठबंधन की चुनावी सेहत पर बुरा असर डाला है. उनकी पार्टी AIMIM ने कुल 103 सीटों पर उम्मीदवार उतारे. जिन मुस्लिम बहुल सीटों पर ओवैसी ने कैंडिडेट उतारे, वो पारंपरिक रूप से सपा-बसपा के गढ़ रहे हैं क्यों मुसलमान उन्हीं दोनों दलों को पिछले कई चुनावों से वोट करते रहे हैं. ओवैसी के उतरने से मुस्लिम वोट खासकर युवा मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगी है. इससे सपा गठबंधन को सीटों का और वेट परसेंट का भी नुकसान पहुंचा है.
2017 में ओवैसी ने 38 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन एक पर भी जीत नहीं सके थे लेकिन कई सीटों पर उसे जितने वोट मिले, उसी के आसपास के वोट मार्जिन से बीजेपी की जीत हुई थी. यानी ओवैसी सपा के लिए हराऊ फैक्टर बन गए. यूपी में 143 सीटें मुस्लिम बहुल सीटें मानी जाती हैं.
मायावती का स्लीपिंग फैक्टर:
पूरे यूपी चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती शांत रहीं. उन्होंने न तो बहुत ज्यादा चुनावी रैलियां की और न ही ज्यादा बयानबाजी कीं. एक तरह से कहें तो वो इस चुनाव में स्लीपिंग मोड में रहीं. हालांकि, उनकी पार्टी ने सभी सीटों पर चुनाव लड़ा. उनकी तरफ से सतीश चंद्र मिश्र ही सभी जगह मैदान में दिखे.
यूपी में दलित वोट करीब 21 फीसद हैं. शुरू में यह कांग्रेस के साथ था. बाद में बसपा की तरफ चला गया. अब बसपा ही दलितों खासकर जाटव समुदाय का कोर वोट बैंक है और ऐसे में मायावती के स्लीपिंग मोड में जाने से दलित वोटर्स भ्रम की स्थिति में रहे. उनका कुछ हिस्सा बीजेपी के पाले में गया तो कुछ का खंड-खंड बंटवारा हो गया. नए दलित नेता चंद्रशेखर रावण के साथ भी अखिलेश की दोस्ती दो-चार दिनों की ही रही. ऐसे में सपा को इससे नुकसान उठाना पड़ा है. (ndtv.com)